Friday, April 6, 2012

कुदरत ने छीने दोनों हाथ, बुलंद हौसलों ने पहुंचाया शिखर पर

जयपुर.फुटबाल के दीवाने नन्हें समीर के दनदनाते शॉट से बॉल जा फंसी मैदान के पास ही लगे ट्रांसफॉर्मर में। न आव देखा, न ताव और चले गए बॉल निकालने। शॉर्ट सर्किट से जोर का धमाका हुआ। नौ साल के समीर की दोनों भुजाएं चंद पलों में लटककर रह गईं।

जिंदगी से लंबी जंग के बाद वे तो बच गए, लेकिन उनके दोनों हाथ कट गए। बेहतरीन खिलाड़ी बनने का ख्वाब भले ही टूट गया हो, लेकिन बुलंद हौसलों से वे आज शिखर तक जा पहुंचे। हार और नामुमकिन जैसे शब्द डिक्शनरी में जगह नहीं बना सके। 52 वर्षीय समीर घोष इस समय वर्ल्ड बैंक के एडवाइजर हैं।

सेंटर फॉर माइक्रो फाइनेंस के सम्मेलन में भाग लेने जयपुर आए समीर को हर शख्स बस निहारता रह गया। मंच पर बैंकिंग सेक्टर से जुड़े विशेषज्ञ एक के बाद एक टॉपिक पर चर्चा करते रहे और समीर दिनभर दाएं पैर की उंगलियों में पैन दबाए तेजी से लिखते रहे। उनका पैन इस कदर चल रहा था जैसे किसी इम्तिहान में आखिरी दौर का वक्त बचा हो। चेहरे पर देखने लायक रौनक। जब छोटा ब्रेक मिला तो उन्होंने मामूली से अनुरोध पर बयां कर दी दिल दहला देने वाली कहानी।

बकौल समीर 9 साल की उम्र में हाथ खोने के बावजूद वे स्कूली स्तर तक अपनी टीम के फुटबाल कप्तान रहे। मन में बस एक ही जज्बा हरदम रहा कि मैं वह सब-कुछ कर सकता हूं जो एक आम इंसान नहीं। परिवार का साथ रहा, बस एक के बाद एक सफलता मिलती रही। जिंदगी में नैराश्य धीरे-धीरे इस कदर खत्म हो गया कि यकीन नहीं होता कि यह वही समीर है, जिसके दोनों हाथ नहीं हैं। हिंदी, अंग्रेजी और बंगाली भाषा पैरों से लिखने में उनकी महारथ देखते ही बनती है।

वे पैर की उंगलियों में फंसाकर तेजी से पन्ने पलटते हैं और उसी तेजी से पेन की रिफिल भी। कुछ गलत होने पर उसी फुर्ती से क्रॉस भी लगाते हैं।

बिलासपुर के रविशंकर विश्वविद्यालय से डिग्री लेने के बाद वे टाटा सोश्यल साइंस इंस्टीट्यूट मुंबई में रहे। बाद में लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से पॉलिसी स्टडीज की शिक्षा ली। घोष बताते हैं, सब-कुछ इसी जिंदगी में होना है, बस ईमानदारी से लगे रहिए। वे विश्व बैंक में एडवाइजर के साथ निशक्तजनों से जुड़े मुद्दों पर भी काम कर रहे हैं। वे चाहते हैं, एक ऐसा सिस्टम तैयार हो जिसमें निशक्त होने के बावजूद इंसान किसी तरह हीनभावना से ग्रस्त न हो।

सरकारों को लगातार इसमें अपनी भूमिका निभाए रखनी होगी। समीर के पास ही बैठीं जमशेदपुर की उनकी महिला मित्र सुलेखा बताती हैं, समीर जिंदादिल हैं। वे दूसरों की कमियां नहीं, उसकी खूबियां तलाशकर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं। कभी निराश न होना, उनकी सबसे बड़ी खूबी है। समीर को पत्नी और दो बेटों का साथ है। वे अपने पैरों पर इस कदर खड़े हो चले हैं कि आज यहां-कल वहां होने के बावजूद उन्हें किसी के साथ की जरूरत महसूस नहीं होती। अपने लक्ष्य के बारे में वे मुस्कुराते हुए कहते हैं, बस चलते रहिए, चलते रहिए।

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