गांधीवादी अन्ना हजारे ने 15 अगस्त को अपने भाषण में गांवों का प्रमुखता से जिक्र किया था। उन्होंने कहा था कि यह लड़ाई लंबी चलेगी और इसे गांवों के पूर्ण विकास तक ले जाना है। शुक्रवार शाम को जब अन्ना हजारे मीडिया से मुखातिब हुए तब भी उन्होंने हर बार उत्तर देते वक्त ग्राम संसद शब्द का प्रयोग किया।
अन्ना हजारे गांवों को ही संसद का आधार मानते हैं। अन्ना हजारे और उनके इस ग्राम संसद कांसेप्ट पर उनके रिश्ते में दामाद लगने वाले अनिलचंद्र यावलकर ने भास्कर से खुलकर बात की। अन्ना हजारे के बारे में जानकारी देते हुए उन्होंने बताया कि छठी कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद अन्ना मुंबई के उपनगरीय इलाके भायखला चले गये जहां वो अपने मामा के साथ फूल बेचने लगे।
अन्ना अन्याय के सामने खामोश नहीं बैठ पाते थे। वहीं पर उनके एक अपंग फूलवाले पर जब पुलिस ने अत्याचार किया तो उनसे रहा नहीं गया और वो एक पुलिसकर्मी से ही भिड़ गए। गांव में यह समाचार इस रूप में पहुंचा की वो टपोरी हो गए हैं। अन्ना इस बात से और दुखी हुए। इसके बाद जब भारत चीन युद्ध हुआ तो अन्ना ड्राइवर के रूप में सेना में भर्ती हो गए।1975 में अन्ना अपने गांव रालेगांव सिद्धी लौटे।
अन्ना का गांव महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में आता है। गांव में बारिश बेहद कम होती थी और पानी की उपलब्धता बड़ी समस्या थी।अन्ना ने सबसे पहले गांव में जल संधारण का काम किया। इसके बाद वो जल के व्यवस्थापन में जुट गए। अन्ना के प्रयासों से जब गांव में पानी की उपलब्धता हो गई तो फिर उन्होंने कृषि विकास पर जोर दिया। कृषि विकास ने अन्ना के गांव को स्वयं निर्भर बना दिया। इसके बाद अन्ना हजारे ने कुल्हाड़बंदी कार्यक्रम चलाकर पेड़ों को कटने से बचाया।
अन्ना ने अपने इलाके को हरा भरा करने के लिए 'झाड़े लावा झाड़े जगवा' कार्यक्रम चलाया। इस कार्यक्रम के तहत उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सिर्फ पेड़ों को लगाया ही न जाए बल्कि उनका विकास भी किया जाए। बढ़ती आबादी को रोकने के लिए अन्ना ने अपने गांव में कुटुंब नियोजन शुरु करवा दिया जिसके अंतर्गत लोगों की नसबंदी करवाई गई।जानवरों के खुले चरने से फसलें भी बर्बाद हो जाती थी तो उन्होंने चरईबंदी कार्यक्रम शुरु कर दिया इसके तहत जानवरों के खुले चरने पर रोक लगा दी गई।
अन्ना के गांव में नशाखोरी भी बड़ी समस्या थी तो इससे निपटने के लिए उन्होंने नशाबंदी लागू कर दी।अन्ना ने सिर्फ अपने गांव के आर्थिक विकास पर ही जोर नहीं दिया। उन्होंने सामाजिक विकास के लिए सामुदायिक विवाह योजना शुरु की और दलितों को सम्मान देने के लिए गांव में होने वाले पारंपरिक कार्यक्रमों में उन्हें अहम भागीदारी दी। अन्ना के गांव में बैलों को पूजने का त्यौहार मनाया जाता है। उन्होंने इसकी पूजा की शुरुआत दलित के हाथों से कराने की परंपरा डाल दी।अनिलचंद्र बताते हैं कि अन्ना हजारे अपने गांव की स्वच्छता पर बहुत ध्यान देते हैं। उन्हें जहां भी गंदगी दिखती वो खुद झाड़ू उठा लेते।
अन्ना के हाथ में झाड़ू देख गांव वाले भी जुट जाते और पूरा गांव साफ हो जाता।अन्ना सबसे ज्यादा श्रमदान में विश्वास रखते हैं। वो कहते हैं कि जो किसी भी चीज का दान नहीं कर सकता वो श्रमदान करके योगदान कर सकता है। अन्ना के गांव में जो स्कूल बना है वो लोगों के श्रमदान से ही बन पाया। इस स्कूल के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि इसके हॉस्टल में सिर्फ उन्हीं बच्चों को जगह मिलती है जो कम से कम दो साल फेल हो गए होते हैं। नापास बच्चों को हास्टल में रखकर उनका विकास किया जाता है।
अन्ना के प्रयासों से न सिर्फ उनका गांव स्वयं पर निर्भर हो गया बल्कि देश के बाकी गांवों के लिए आदर्श भी बन गया। अन्ना को इसके लिए 1989 में भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा। इसके बाद से उन्हों अपने प्रयासों के लिए कई तरह के सम्मान मिलते रहे हैं। 1992 में महाराष्ट्र सरकार ने अन्ना के ग्राम विकास के मॉडल को अपनाते हुए आदर्श ग्राम योजना लागू कर दी। इसके बाद इस योजना को आधार बनाकर कई और राज्यों ने ऐसी ही योजनाएं लागू की।
इस प्रश्न पर कि आज देश का युवा कह रहा है कि मैं अन्ना हूं, लेकिन वास्तव में अन्ना होना है क्या? यावलकर जवाब देते हैं कि अन्ना होने का मतलब है स्वयं पर निर्भर होना, स्ववाबलंबी होना, इरादों का मजबूत होना। और सबसे महत्वपूर्ण अपने गांव,अपने लोगों और अपने क्षेत्र के विकास में जुट जाना। जो खुद को अन्ना कहते हैं वो कभी किसी पर अन्याय होता नहीं देख सकते। वो जुर्म होता देख कर खामोश नहीं बैठ सकते।
अन्ना होने का मतलब ही अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना है। अन्याय चाहे जैसा भी हो।यावलकर ने यह भी बताया कि अन्ना हमेशा से ही युवाओं में विश्वास रखते रहे हैं। जब उन्हें युवाओं के जोश और भरपूर समर्थन के बारे में खबर मिली तो वो बहुत खुश हुए। उनके दिल की खुशी उनके चेहरे पर भी दमक रही थी।
श्री यावलकर स्वयं अन्ना के दिखाए रास्ते पर चलते हुए महाराष्ट्र के आदीवासी इलाकों में समाजसेवा कर रहे हैं। समाजसेवा के बारे में भी उनका अलग ही नजरिया है। वो कहते हैं कि समाज हमें पहचान देता है, सम्मान देता है, जीवन यापन के साधन उपलब्ध कराता है। बदले में हम उसे कुछ देकर उसका कर्ज उतारते हैं।
हर व्यक्ति को अपना यह कर्ज उतारना चाहिए। जब व्यक्ति के अंदर स्वाभीमान की भावना आ जाती है तो वह समाज का यह कर्ज उतारने के लिए गंभीर हो जाता है। लोग इस कर्ज उतारने को ही समाज सेवा कहते हैं।
अन्ना हजारे गांवों को ही संसद का आधार मानते हैं। अन्ना हजारे और उनके इस ग्राम संसद कांसेप्ट पर उनके रिश्ते में दामाद लगने वाले अनिलचंद्र यावलकर ने भास्कर से खुलकर बात की। अन्ना हजारे के बारे में जानकारी देते हुए उन्होंने बताया कि छठी कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद अन्ना मुंबई के उपनगरीय इलाके भायखला चले गये जहां वो अपने मामा के साथ फूल बेचने लगे।
अन्ना अन्याय के सामने खामोश नहीं बैठ पाते थे। वहीं पर उनके एक अपंग फूलवाले पर जब पुलिस ने अत्याचार किया तो उनसे रहा नहीं गया और वो एक पुलिसकर्मी से ही भिड़ गए। गांव में यह समाचार इस रूप में पहुंचा की वो टपोरी हो गए हैं। अन्ना इस बात से और दुखी हुए। इसके बाद जब भारत चीन युद्ध हुआ तो अन्ना ड्राइवर के रूप में सेना में भर्ती हो गए।1975 में अन्ना अपने गांव रालेगांव सिद्धी लौटे।
अन्ना का गांव महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में आता है। गांव में बारिश बेहद कम होती थी और पानी की उपलब्धता बड़ी समस्या थी।अन्ना ने सबसे पहले गांव में जल संधारण का काम किया। इसके बाद वो जल के व्यवस्थापन में जुट गए। अन्ना के प्रयासों से जब गांव में पानी की उपलब्धता हो गई तो फिर उन्होंने कृषि विकास पर जोर दिया। कृषि विकास ने अन्ना के गांव को स्वयं निर्भर बना दिया। इसके बाद अन्ना हजारे ने कुल्हाड़बंदी कार्यक्रम चलाकर पेड़ों को कटने से बचाया।
अन्ना ने अपने इलाके को हरा भरा करने के लिए 'झाड़े लावा झाड़े जगवा' कार्यक्रम चलाया। इस कार्यक्रम के तहत उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सिर्फ पेड़ों को लगाया ही न जाए बल्कि उनका विकास भी किया जाए। बढ़ती आबादी को रोकने के लिए अन्ना ने अपने गांव में कुटुंब नियोजन शुरु करवा दिया जिसके अंतर्गत लोगों की नसबंदी करवाई गई।जानवरों के खुले चरने से फसलें भी बर्बाद हो जाती थी तो उन्होंने चरईबंदी कार्यक्रम शुरु कर दिया इसके तहत जानवरों के खुले चरने पर रोक लगा दी गई।
अन्ना के गांव में नशाखोरी भी बड़ी समस्या थी तो इससे निपटने के लिए उन्होंने नशाबंदी लागू कर दी।अन्ना ने सिर्फ अपने गांव के आर्थिक विकास पर ही जोर नहीं दिया। उन्होंने सामाजिक विकास के लिए सामुदायिक विवाह योजना शुरु की और दलितों को सम्मान देने के लिए गांव में होने वाले पारंपरिक कार्यक्रमों में उन्हें अहम भागीदारी दी। अन्ना के गांव में बैलों को पूजने का त्यौहार मनाया जाता है। उन्होंने इसकी पूजा की शुरुआत दलित के हाथों से कराने की परंपरा डाल दी।अनिलचंद्र बताते हैं कि अन्ना हजारे अपने गांव की स्वच्छता पर बहुत ध्यान देते हैं। उन्हें जहां भी गंदगी दिखती वो खुद झाड़ू उठा लेते।
अन्ना के हाथ में झाड़ू देख गांव वाले भी जुट जाते और पूरा गांव साफ हो जाता।अन्ना सबसे ज्यादा श्रमदान में विश्वास रखते हैं। वो कहते हैं कि जो किसी भी चीज का दान नहीं कर सकता वो श्रमदान करके योगदान कर सकता है। अन्ना के गांव में जो स्कूल बना है वो लोगों के श्रमदान से ही बन पाया। इस स्कूल के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि इसके हॉस्टल में सिर्फ उन्हीं बच्चों को जगह मिलती है जो कम से कम दो साल फेल हो गए होते हैं। नापास बच्चों को हास्टल में रखकर उनका विकास किया जाता है।
अन्ना के प्रयासों से न सिर्फ उनका गांव स्वयं पर निर्भर हो गया बल्कि देश के बाकी गांवों के लिए आदर्श भी बन गया। अन्ना को इसके लिए 1989 में भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा। इसके बाद से उन्हों अपने प्रयासों के लिए कई तरह के सम्मान मिलते रहे हैं। 1992 में महाराष्ट्र सरकार ने अन्ना के ग्राम विकास के मॉडल को अपनाते हुए आदर्श ग्राम योजना लागू कर दी। इसके बाद इस योजना को आधार बनाकर कई और राज्यों ने ऐसी ही योजनाएं लागू की।
इस प्रश्न पर कि आज देश का युवा कह रहा है कि मैं अन्ना हूं, लेकिन वास्तव में अन्ना होना है क्या? यावलकर जवाब देते हैं कि अन्ना होने का मतलब है स्वयं पर निर्भर होना, स्ववाबलंबी होना, इरादों का मजबूत होना। और सबसे महत्वपूर्ण अपने गांव,अपने लोगों और अपने क्षेत्र के विकास में जुट जाना। जो खुद को अन्ना कहते हैं वो कभी किसी पर अन्याय होता नहीं देख सकते। वो जुर्म होता देख कर खामोश नहीं बैठ सकते।
अन्ना होने का मतलब ही अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना है। अन्याय चाहे जैसा भी हो।यावलकर ने यह भी बताया कि अन्ना हमेशा से ही युवाओं में विश्वास रखते रहे हैं। जब उन्हें युवाओं के जोश और भरपूर समर्थन के बारे में खबर मिली तो वो बहुत खुश हुए। उनके दिल की खुशी उनके चेहरे पर भी दमक रही थी।
श्री यावलकर स्वयं अन्ना के दिखाए रास्ते पर चलते हुए महाराष्ट्र के आदीवासी इलाकों में समाजसेवा कर रहे हैं। समाजसेवा के बारे में भी उनका अलग ही नजरिया है। वो कहते हैं कि समाज हमें पहचान देता है, सम्मान देता है, जीवन यापन के साधन उपलब्ध कराता है। बदले में हम उसे कुछ देकर उसका कर्ज उतारते हैं।
हर व्यक्ति को अपना यह कर्ज उतारना चाहिए। जब व्यक्ति के अंदर स्वाभीमान की भावना आ जाती है तो वह समाज का यह कर्ज उतारने के लिए गंभीर हो जाता है। लोग इस कर्ज उतारने को ही समाज सेवा कहते हैं।
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